शिमला. हिमाचल की राजनीति में लोगों ने सरकार बदलने का रिवाज इस बार भी कायम रखा. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिलने और भाजपा के रिवाज बदलने के नारे ठीक उलट रहे. परिणाम आने के बाद राजनीतिक विशेषज्ञों की नजर में चुनाव की घोषणा के पहले ही प्रदेश में सत्ता परिवर्तन तय था.
कहा जाता है कि मानव जाति में पीढ़ी दर पीढ़ी रिवाज निभाना धर्म निभाने जैसा होता है. हालांकि, कांग्रेस की पहली कैबिनेट में ओल्ड पेंशन स्कीम (OPS) देने के वायदे का जादू तो चल गया. लेकिन प्रदेश में इस बार नई सरकार के सिर कांटों का ताज होगा. प्रदेश पर करीब 70 हजार करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ा हुआ है.
सरकार को काम आगे बढ़ाने के लिए बार-बार कर्ज की दरकार होती है. सरकार अब सिंगल इंजन की होगी तो केंद्र की भाजपा सरकार से विशेष मदद मिले बिना घोषणाओं को कैसे पूरा किया जाएगा? यह एक बड़ा सवाल है. वित्तीय व्यवस्था करना कांग्रेस के नए मुख्यमंत्री के लिए चुनौतीपूर्ण होगा.
हिमाचल में कांग्रेस के छह बार के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह के बिना यह पहला चुनाव था. हिमाचल का रिवाज हर बार सरकार बदल देने का है लेकिन वीरभद्र व मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं था. कर्मचारियों की नाराजगी को पढ़ने में भाजपा की केंद्र व प्रदेश की जयराम सरकार असफल रही. इसे ही कांग्रेस ने चुनाव जीतने का महत्वपूर्ण हथियार बना लिया. प्रदेश में औसतन हर दूसरा घर इस मुद्दे से सीधा जुड़ा हुआ है. पूर्व में ओपीएस पर सरकारी कर्मचारियों के आंदोलन के बीच मुख्यमंत्री जयराम का विधानसभा में बोलना कि पेंशन लेनी है तो चुनाव लड़कर कर्मचारी विधानसभा में आ जाएं, ने आग में घी डालने का काम किया था.
बदलाव को बेहतरी का सूचक मानता है हिमाचल का मतदाता
कांग्रेस की जीत में दूसरा महत्वपूर्ण कारण कांग्रेस का सत्तासीन भाजपा सरकार को हिमाचल के मुद्दों पर घेरना, अपने घोषणा पत्र को कर्मचारी, किसान, मजदूर, आम आदमी पर केंद्रित करना रहा है. इसमें ओपीएस, सोलन की रैली में प्रियंका गांधी का अग्निवीर योजना को बंद कर पुराने तरीके से भर्ती करवाने की बात ने मंडी, कांगड़ा, हमीरपुर, बिलासपुर जैसे कई राज्यों के युवाओं और लोगों तक पकड़ बनाई. घोषणा पत्र में महिलाओं को 1500 रुपये देने की घोषणा, 300 यूनिट बिजली, बागवानों को फसल का सही दाम देने जैसी घोषणाओं ने भी मतदाताओं को प्रभावित किया हे.
इस विधानसभा चुनाव में भाजपा का फोकस रिवाज बदलने को लेकर ज्यादा था, इसलिए उसने कांग्रेस के उठाए मुद्दों को काउंटर नहीं किया. हिमाचल से ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने चुनाव में लंबा प्रवास प्रदेश में करते हुए हर सीट के लिए रात-दिन काम किया लेकिन उनकी रणनीति व जादू नहीं चल सका. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियां भी जनता के मूड में बदलाव नहीं कर सकीं. हालांकि, चंबा व मंडी जिलों में सर्वाधिक सीटें मिलने का कारण वहां पर मोदी की रैलियों को माना जा रहा है.
इस चुनाव में 21 सीटों पर भाजपा के बागी ही पार्टी के अधिकारिक प्रत्याशी की जीत में बाधा बने हुए थे. कुछ जगह तो भाजपा को इसका नुकसान भी हुआ. सरकार में नंबर एक के मंत्री सुरेश भारद्वाज की सीट बदलने के बाद कांग्रेस ने अपनी मजबूत सीट शिमला शहरी भी खो दी और भारद्वाज कसुम्पटी से भी हार गए. इसी तरह कुल्लू में भाजपा के पूर्व सांसद महेश्वर सिंह का टिकट न कटने पर वह जीत सकते थे. नालागढ़ व देहरा से भी भाजपा के टिकट कटने पर निर्दलीय के रूप में खड़े प्रत्याशी जीत गए. इसी तरह से करीब आधा दर्जन सीटों से अधिक स्थानों पर भाजपा की सीट गुटबाजी में फंस गई. ऐसे में इन आठ से दस सीटों पर बागी समीकरण नहीं बिगाड़ते और यह सीटें भाजपा के पक्ष में जातीं तो दृश्य कुछ और होता.
प्रियंका की रणनीति से कांग्रेस में नए उत्साह का संचार
राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त रहने के बावजूद प्रियंका गांधी ने हिमाचल चुनाव पर अपना पूरा फोकस रखा. इस दौरान वह शिमला में अपने घर पर ही रहीं. उन्होंने प्रदेश में पांच रैलियां कीं. इस रणनीति में उनके सहयोगी रहे प्रदेश के प्रभारी राजीव शुक्ला व चुनाव प्रभारी तथा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी उनके सारथी बने.
वहीं, काफी समय बाद किसी राज्य में जीत हासिल करने के बाद कांग्रेस में नए उत्साह का संचार हो गया है. इसे आगामी चुनावों में कांग्रेस बनाए रखना चाहती है. यह राज्य छोटा जरूर है लेकिन कांग्रेस इसे इस नजरिए से महत्वपूर्ण मान रही है कि नड्डा, अनुराग यहीं से आते हैं. पीएम मोदी भी इसे अपना दूसरा घर बताते हैं. कांग्रेस सूत्रों के अनुसार इस जीत की रणनीति व नेताओं का इस्तेमाल पार्टी आगामी चुनावों में भी करेगी.
कांग्रेस के समक्ष मुख्यमंत्री का नाम तय करने की चुनौती
चुनावों में भले ही प्रदेश के मतदाताओं ने कांग्रेस को पूरे बहुमत के साथ जिताया है, मगर कांग्रेस के केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के सामने अब बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री का नाम तय करने की है. विधायकों के साथ सलाह कर बिना किसी विवाद के सहमति बनानी होगी.