कांगड़ा. हिमाचल के कवरेज पर निकली पंचायत टाइम्स की टीम ने इस बार राजनीतिक रिपोर्टिंग से हट कर चाय बागानों पर रिपोर्टिंग की. हमारे संवाददाता राजन पांडेय इस बार पालमपुर के चाय बागानों से लाइव हुए.
चाय के उत्पादन का इतिहास
आसाम-दार्जिलिंग से हट कर चाय का उत्पादन देश के दूसरे हिस्सों में भी होता है. दक्षिण भारत में मुन्नार की पहाड़ियों में पैदा होने वाली नीलगिरि चाय पहले ही मशहूर है. उसी तरह बिहार से सटे किशनगंज इलाके में भी चाय का उत्पादन होता है. तीसरी जगह जो चाय उत्पादन क लिये जानी जाती है उसे कांगड़ा टी कहते हैं. नाम से ही साफ है कि यह हिमाचल के कांगड़ा में पैदा होने वाली चाय है. यहां पर चाय़ का उत्पादन अंग्रेजों ने शुरू किया.
1840 के आस-पास उन्होंने अपने एक अध्ययन में पाया कि धर्मशाला के आस-पास चाय के पैदावार की उपयुक्त जलवायु है. इसके बाद यहां खेती शुरू हुई. 1880 आते-आते हिमाचल की ‘कांगड़ा टी’ काबुल तक मशहूर हो चुकी थी. यहां के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर के मुताबिक, कांगड़ा टी हिंदुस्तान में उगायी जाने वाली अन्य चायों से बेहतर है. 1905 में यहां एक बहुत बड़ा भूकंप आया जिसके बाद चाय उद्योग को काफी झटका लगा. मजदूरों की दिक्कत हो गयी. उसके बाद अंग्रेज अपने चाय के एस्टेट छोड़ कर भागने लगे. इसके बाद कुछ एस्टेट कॉपरेटिव में चले गये. कुछ सरकार के हाथ में आ गये. ज्यादार एस्टेट निजी हाथों में चले गये.
यूपीए 2 की सरकार में आनंद शर्मा ने टी बोर्ड का एक रीजनल ऑफिस खुलवाया और कांगड़ा टी के उत्पादन के नाम-पहचान को दोबारा बनाने की कोशिश की. इन्ही प्रयासों से संभव हुआ कि कांगड़ा के पालमपुर में भी चाय का उत्पादन दोबारा शुरू हो चुका है.
यहां राजन वाह टी इस्टेट से वहां के मैनेजर हरिनाथ के साथ लाइव होते हैं.
550 एकड़ में फैले इस बागान में 250 एकड़ में चाय की खेती होती है. मौसम का असर चाय की तासीर पर बहुत ज्यादा होता है. मैनेजर हरिनाथ बताते हैं कि यहां होने वाली चाय ‘ऑर्थोडॉक्स टी’ है जबकि घरों में पी जाने वाली चाय ‘सीटीसी’ चाय होती है. सीटीसी का मतलब पूछने पर वह ‘कट-ट्विस्ट-कट’ टी बताते हैं. वह बताते हैं कि यह पत्ती वाली चाय है जबकि घरों में पी जाने वाली चाय, इस पत्ती के रस से मशीन के जरिये दानेदार बनायी जाती है. कांगड़ा की चाय हेल्थ के लिहाज से बहुत अच्छी मानी जाती है. इससे ग्रीन, ब्लैक हर तरह की चाय बनती है, इसे चाइना हाइब्रिड कहते हैं.
देवग्रान वाह टी इस्टेट की फैक्ट्री में पहुंचे राजन सबसे पहले प्रोसेसिंग कारखाना देखते हैं. जहां पर रोलिंग का काम हो रहा है. हरिनाथ बताते हैं कि चाय की पत्ती सूख कर सबसे पहले यहां आती है. 65% पानी निकाल कर इसकी रोलिंग होती है. चाय की पत्ती से उसकी प्राकृतिक कालिख निकालने के लिये मशीन के अंदर ट्विस्ट किया जाता है. फिर फर्मेंटेशन यूनिट से गुजारने के बाद इसे ड्राइंग यूनिट में ले जाकर गरम हवा में सुखाया जाता है. 260-265 फारेनहाइट पर पत्तियों को सुखा कर सॉर्टिंग रूम में ले जाकर इसकी ग्रेडिंग की जाती है. जो कि चाय के उत्पादन की फाइनल प्रक्रिया है. पत्ती तोड़ने का मौसम अप्रैल से अक्टूबर तक होता है. उसके बाद नवंबर से चाय का उत्पादन शुरू होता है. यहां पर काम करने वाले लेबर में स्थानीय लोगों के अलावा झारखंड के भी लेबर दिखाई देते हैं.