“तुर्क हिन्दुस्तानियम दर हिन्दवी गोयम जवाब”
“अर्थात मै हिंदुस्तानी तुर्क हूँ और हिंदी, पानी की रवानी के साथ बोलता हूं.”
यह उद्घोषणा हमारे भारतीय इतिहास के एक ऐसे महानायक की है जिसका पूरा जीवन अद्वितीय सामंजस्य और संतुलन का बेजोड़ उदाहरण है. हिंदुस्तानियत की हर एक विशेषता से युक्त इस बेमिसाल शख्सियत का नाम अमीर खुसरो है. बहुआयामी प्रतिभा के धनी खुसरो एक साथ कवि, संगीतकार, योद्धा और सूफी-फकीर सब कुछ थे. अपनी कविताओं के जरिये उन्होंने न केवल फ़ारसी को आगे बढ़ाया बल्कि सबसे ज्यादा हिंदी को समृद्ध किया. उनकी पहेलियां, कहावतें, मुकरियाँ आज भी जन-जन में प्रचलित है. आम बोलचाल की भाषा में खुसरो ने अपनी रचनाओं का शिल्प विकसित किया और उसे इतना लोकग्राही बना दिया कि आज तक वो हमारी जुबान पर चढ़े हुए हैं-
एक थाल मोती से भरा. सबके सर लार औंधा धरा.
इस पहेली का उत्तर है आकाश
जीवन के आम संदर्भो से जुडी उनकी मुकरियों का तो कोई जवाब ही नहीं है, एक मुकरिया है…
“लिपट लिपट के वाके सोई
छाती से छाती लगा के रोइ
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखी साजन?न सखि जाड़ा.”
खुसरो में लोकजीवन और समाज की कितनी गूढ़ समझ थी इसका अंदाजा उनके गीतों के माध्यम से बहुत आसानी से लगाया जा सकता है. खुसरो जब बेटी के बिदाई का गीत लिखते हैं तो लगता है काल के रंगमंच पर एक पिता से उसकी बेटी वह यक्षप्रश्न पूछती है जो आज भी अनुत्तरित है. यह सन्दर्भ आज भी उतना ही प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण है. जाहिर है एक तरफ वो पितृसत्तात्मक समाज की बखिया उधेड़ रहे हैं तो दूसरी ओर स्त्रियों के अधिकारों को मजबूत अभिव्यक्ति दे रहे हैं. एक अत्यंत सजग भविष्यद्रष्टा रचनाकार ही ऐसा कर सकता है.
ध्यान इस बात का भी रखियेगा कि खुसरो का यह गीत आज भी जब शादी-ब्याह या अन्य किसी मौके पर सुनने को मिलता है तो वह किसी धर्म या जाति विशेष की स्त्री या बेटी की दारूण दशा की संपूर्ण सीमा में नहीं बंधा होता बल्कि उसका विस्तार संपूर्ण स्त्री जाति तक होता है, उसका अर्थ संपूर्ण समाज पर एक प्रश्न खड़ा करता है और इन्हीं अर्थों में अमीर खुसरो एक कालजयी रचनाकार की तरह सामने आते हैं. इस देश की मिट्टी, ताने-बाने, संस्कृति को एक साथ एक ही भावधारा में रंग देने की यह अप्रतिम योग्यता सिर्फ खुसरो में ही मिलती है. और इसके पीछे उनकी उस पारिवारिक परवरिश का योगदान है जहाँ एक तुर्क पिता और हिन्दू माता ने उन्हें गीता, महाभारत, वेद और कुरान एक साथ पढ़ने और समझने का मौका दिया.
स्त्री विमर्श जैसे आधुनिक अस्मितामूलक विमर्शों के आने से बहुत पहले खुसरो ने स्त्रियों के हक के जिन बुनियादी सवालों को उठाया था वो आज भी बदस्तूर बने हुए हैं-
“काहे को ब्याहे विदेस
अरे लाखिया बाबुल मोरे
भैया को दीए बाबुल महले दुमहले
हमको दिया परदेस अरे लखिया बाबुल.
हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गैय्या.
जिंत हांके हंक जैहै अरे लाखिया बाबुल
काहे को व्याहे विदेस.”
खड़ी बोली हिंदी के पहले कवि अमीर खुसरो भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने दिल्ली की गद्दी पर काबिज सात सुल्तानों के साथ काम किया. युद्धभूमि में तलवार भी चलायी लेकिन कभी सांसारिक माया मोह में नहीं फंसे और अपनी फकीरी में हमेशा मदमस्त रहे. सूफी मत के चिश्तिया सिलसिले से जुड़े अमीर खुसरो निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय मुरीद(शिष्य)थे. सूफी साधना में डूब चुके खुसरो ने इश्क़-ए-हक़ीक़ी में खुद को फ़ना कर लिया था तभी तो वो कहते हैं-
“मन तू शुदम तू मन शुदी
मन तुन शुदम तू जान शुदी
ताकस न् गोयद बाद अजीम
मन दिगरम तू दिगरी”.
(अर्थात मैं तू और तू मैं हो गया,मैं जिस्म हूँ,तू रूह मेरा कहने को अब क्या बचा है, न तू मुझसे जुदा है न मैं तुझसे जुदा)
अपने पीर की देहावसान की बेला में खुसरो को सारा संसार अंधकारमय दिखने लगा।उन्हैं पूरी दुनिया खाली और बेमानी लगने लगी।सूफी साधना में पीर अर्थात गुरु का अत्यंत उच्च स्थान है तभी तो खुसरो कहते हैं-
“गोरी सोवै सेज पर मुख पर डारै केस.
चल खुसरो घर आपनो रैन भई चहुँ देस.”
खुसरो ने सूफी साधना में संगीत का विकास करते हुए और नए आयाम जोड़ते हुए कव्वाली और तबले का पूर्ण विकास किया. खुसरो की कई रचनाएँ हैं जिनमें खालिकबारी,किरानुससादैन,नुह सिपहर आदि प्रमुख हैं.
आज के इस दौर में जब मजहबों की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। इंसान, इंसान के खून का प्यासा होता जा रहा है; पूरा देश नफरत की आग में झुलस रहा है तब खुसरो को याद करना बहुत मानीख़ेज हो जाता है ताकि हिंदुस्तान की मिट्टी में पैदा हुए इस महान व्यक्तित्व के कृतित्व से कुछ सबक लेते हुए अपने वर्तमान और भविष्य के साझा सरोकारों और मुहब्बत के पैगाम को और आगे बढ़ा सकें और पुख्ता कर सकें.
तूतिये हिन्द-अमीर खुसरो ने मुल्क से अपनी बेपनाह मुहब्बत का बखान करते हुए लिखा है-
“गर फिरदौस बरु-ए-अस्त
अमी अस्तो अमी अस्तो अमी अस्त”
(अर्थात धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है,यहीं है ,यहीं है)
आज हजरत अमीर खुसरो को याद करते हुए हमें इस जिम्मेदारी को भी बखूबी उठाना होगा.
‘ ज़े हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल ‘ शायद हिन्दुस्तान की पहली शायरी है, सुनिये…