अब जबकि पृथ्वी 2017 का अपना चक्कर पूरा ही करने वाली है, यह एक मुफीद समय है कि इस साल की विश्व-राजनीति को पीछे मुड़कर टटोला जाय, देखा जाय कि वे कौन सी घटनाएं थीं, जिन्होंने खासा असर पैदा किया, ऐसी वे कौन सी गतिविधियां रहीं, जिनके जिक्र के बिना 2017 का कोई जिक्र अधूरा रहेगा और इन सबके बीच अपना भारत कैसे आगे बढ़ा. यह एक मुश्किल काम इसलिए तो है ही कि विश्व राजनीति की बिसात बेहद लम्बी-चौड़ी है, पर असल चुनौती इसमें वैश्वीकरण की प्रक्रिया पैदा करती है.
राजनीति का वैश्वीकरण
विश्व में वैश्वीकरण है, इसके अपने अच्छे-बुरे असर हैं; पर दरअसल विश्व-राजनीति का भी वैश्वीकरण हो चला है. इसका अर्थ यह है कि अब किसी भी महत्वपूर्ण वैश्विक घटना के स्थानीय निहितार्थ व प्रभाव हैं और किसी महत्वपूर्ण स्थानीय घटना के भी वैश्विक निहितार्थ व प्रभाव हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. संचार साधनों ने यह सुलभता तो दी है कि सभी घटनाएं सभी स्तर पर लगभग तुरत ही उपलब्ध हैं, किन्तु इन्होने विश्व-राजनीति की जटिलताओं का और विस्तार ही किया है.
विश्व-राजनीति के वैश्वीकरण का सबसे सीधा असर यों महसूस किया जा सकता है कि अब भले ही देशों के मध्य कूटनीतिक तनातनी हो, देश आपस के व्यापारिक संबंधों पर उसका असर न्यूनतम रखना चाहते हैं. अमेरिका और चीन के व्यापारिक आंकड़े इस सन्दर्भ में देखे जा सकते हैं. यहीं से इस आशा को भी बल मिलता है कि दुनिया में तनाव तो कई जगह बेहद गहरे हैं पर विश्वयुद्ध जैसी विभीषिका अथवा शीतयुद्ध जैसे तनाव की आशंका मद्धिम ही है.
सालभर चर्चाओं में रहा यूरोप
दुनिया के सबसे चमकदार महाद्वीप यूरोप का यूरोपीय यूनियन लगभग साल भर चर्चा में रहा. आर्थिक वजहों को अगर परे रखें तो ब्रिटेन का ईयू से छिटकना, जिसे विश्व मीडिया में ब्रेक्जिट कहा गया; लगातार चर्चा में रहा. 2016 में ही ब्रिटेन ने अपनी मंशा जता दी थी पर इसे औपचारिक जामा मिला 2017 में. अभी भी ब्रेक्जिट की जटिल औपचारिक प्रक्रियाएं चल रही हैं और इसी के सामानांतर यह विमर्श भी चलता रहा कि आज की वैश्वीकरण वाली विश्व-राजनीति में ईयू का एकीकृत मॉडल कितना सटीक है.
प्रसिद्ध बार्सीलोना शहर वाले स्पेन का सबसे समृद्ध राज्य कैटेलोनिया, जिसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान स्पेनी राष्ट्रीय पहचान से भी पुरानी है, इस साल एक नए राष्ट्र बनने के संघर्ष में जुटा रहा. कैटेलोनियन राष्ट्रीयता के साथ एक अलग संप्रभु राष्ट्र-राज्य बन जाने की राह बेहद कठिन है क्योंकि ईयू, अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस समेत सभी विकसित देशों ने इसका विरोध किया है.
कैटेलोनिया विवाद दरअसल यूरोप में चल रहे दर्जन भर से अधिक नए राष्ट्र-राज्य आन्दोलनों की सबसे सशक्त बानगी है, जिसके मूल में पश्चिमी देशों की दोतरफा नीति की झलक तो है ही अपितु और गहरे में यह पश्चिमी राष्ट्रवाद की सीमा को भी उजागर कर देती है. पश्चिमी जगत लोकतान्त्रिक आत्म-निर्णयन के सिद्धांत का हवाला देता हुआ विकासशील देशों खासकर जिनका एक औपनिवेशिक अतीत भी है, के ऐसे ही आन्दोलनों के पक्ष में खड़ा हो जाता है. किंतु जब बात स्वयं पर आती है तो एक स्वर से सभी विकसित पश्चिमी राष्ट्र ऐसे आन्दोलनों को ‘खतरनाक चलन’ कह ख़ारिज करना चाहते हैं. सिद्धांततः पश्चिमी राष्ट्रवाद एकरूपता/समरूपता (homogeneity) की नींव पर निर्मित है जिसमें विविध पहचानों को किसी एक पहचान में विलीन होना होता है अथवा अलग राष्ट्र बन जाना होता है. इसके विपरीत भारतीय राष्ट्रवाद की संकल्पना जो पश्चिमी राष्ट्रवाद के जवाब में आयी उसने विविधता को अंगीकार किया और अनेकता में एकता के दर्शन करते हुए विभिन्नता (heterogeneity) को अपना आधार बनाया. कैटेलोनिया विवाद जैसे वैश्विक घटना से भारत स्थानीय स्तर पर यह पाठ ले सकता है कि हमें अपनी राष्ट्रीयता को संजोना चाहिए जो हमारे देश की विशाल विविधता को आत्मसात करते हुए सततता में विश्वास रखती है.
आईएस के चंगुल से आजाद हुआ मोसुल
जुलाई में इराक के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल को आखिरकार आईएस के चंगुल से छुड़ा लिया गया जिसे ठीक दो साल पहले अबू बक्र अल बगदादी के नेतृत्व में कब्ज़ा कर लिया गया था. इसके साथ ही पिछले तीन साल का क्रूरतम आतंकवादी खौफ व क्रूरता अंततः थमी, जिसने लोगों के मन में अल क़ायदा का नाम भुला ही दिया था. अमेरिका और रूस दोनों ने ही आईएस के खिलाफ हुंकार भरी, पर यकीनन दोनों का उद्देश्य अपना अपना राष्ट्रहित रहा. रूस के लिए सीरियाई सरकार प्राथमिकता में है तो अमेरिका इराकी प्रतिबद्धता के अनुरूप कार्यरत रहा. मध्य-एशिया का सबसे गरीब देश यमन जो अदन की खाड़ी के किनारे-किनारे बसा है हूती (शिया) और सुन्नी की क्षेत्रीय लड़ाई में मोहरा बन गया. यमन में हालात तो पहले ही कुछ ठीक नहीं थे पर शियापरस्त ईरान और सुन्नीपरस्त सऊदी अरब ने यमन की घरेलू राजनीति की खींचातानी को अंततः एक बेहद अमानवीय गृहयुद्ध में तब्दील कर दिया. दिसंबर के इस हफ्ते में यमन को यूं सुलगते लगभग हजार दिन हो जायेंगे और लगभग नौ हजार की नरबलि ले चुका यह संघर्ष विश्वशक्तियों के निर्णायक हस्तक्षेप की अभी भी बाट जोह रहा है.
अमेरिका, जेरुसलम और शेष विश्व
मध्य-एशिया का सबसे पुराना और जटिल मुद्दा फ़िलहाल ठंडे बस्ते में था कि इसी दिसंबर माह के पहले हफ्ते में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपना एक चुनावी वादा पूरा करते हुए ऐलान किया कि अब वक्त आ गया है कि जेरुसलम को इजरायल की राजधानी घोषित किया जाय और अमेरिकी दूतावास को जेरुसलम में प्रतिस्थापित किया जाय. ट्रम्प के इस बेवक्त के स्टंट ने मध्य एशियाई राजनीति के इस पुराने जिन्न को फिर से जगा दिया और मध्य एशियाई शक्तियां इस मुद्दे पर एकजुट हो इजरायल और अमेरिका का विरोध करने लगी हैं. इसमें सऊदी अरब की भूमिका सबसे अधिक उल्लेखनीय है. पहले से ही यह मुल्क अमेरिका सहयोग की नीति अपनाता रहा है और नए अतिमहत्वाकांक्षी राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व वाला सऊदी अरब एक सोची समझी अस्पष्टता बरत रहा है. ज़ाहिर है नए साल में भी मध्य एशिया सुर्ख़ियों में बना रहेगा भले ही सुलगता हुआ ही रहे. भारत ने बेहद सुन्दर संतुलन के साथ मध्य एशिया की अपनी विदेश नीति कुछ यों साधी है कि तेल की जरूरतें पूरी होती रहें और लपटें भी न लगें.
पनामा पेपर्स समेत अन्य सुर्खियां
वैश्विक स्तर पर जिन मामलों ने 2017 को परिभाषित किया उनमें इण्टरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस के जजों का चुनाव, पनामा पेपर्स और जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति रोबर्ट मुगाबे की विदाई खासा सनसनीखेज रही. यूएनओ ने सभी पारम्परिक शक्तियों ने ब्रिटेन को समर्थन दिया पर अंततः भारत के दलवीर भंडारी ने जीत दर्ज की. यह हेग विजय भारतीय कूटनीति के अथक प्रयासों का परिणाम थी. दलवीर भंडारी का जजों के पैनल में होना एक निर्णायक बिंदु था जहाँ भारत को कुलदीप जाधव मामले में सहायता मिली थी. जिम्बाब्वे में एक समय नायक की तरह राज करने वाले रोबर्ट मुगाबे ने सत्ता मोह में अपनी छवि के साथ ही समझौता कर लिया और अंततः जनविरोध के समक्ष घुटने टेककर उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अप्रासंगिक होना पड़ा.
दुनिया के चौथे सबसे बड़े लॉ फर्म मोजैक फोंसेका के डेटाबेस से तकरीबन साढ़े ग्यारह मिलियन दस्तावेजों के लीक हो जाने से दुनिया भर के कच्चे-चिट्ठों की पोल खुली. लगभग हर देश में इसपर बवाल मचा पर सर्वाधिक असर पाकिस्तान की सिविल सोसायटी पर देखा गया जब अदालत ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के खिलाफ भ्रष्टाचार के पुराने मामले में उन्हें दोषी करार दिया. नवाज़ को गद्दी छोड़नी भी पड़ी. अपने देश भारत में भी पनामा पर चर्चा बहुत हुई और कई लोगों के नाम भी उछले पर अंततः यह सुर्खियां सूख गयीं.
…जारी
लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं.