यौम-ए-आज़ादी (आजादी का दिन) का ख़ुमार सर चढ़कर बोल रहा है. बोले भी क्यों न, आज़ादी की जो बात है. जगह जगह आज़ादी को लेकर मुशायरे और कवि सम्मलेन हो रहे हैं. मैंने भी सोचा कि आज़ादी की ख़ुशी नज़्म के ज़रिए ज़ाहिर की जाए.
कर फ़ना तू जिंदगानी, जान तू क़ुर्बान कर
है लहू की ग़र ज़रुरत, सर वतन के नाम कर
कर जिहाद उनके लिए, जो देश के गद्दार हैं
मर के भी जिंदा रहे तू, आज ऐसा काम कर
कर फ़ना तू जिंदगानी जान तू कुर्बान कर..
ताज़गी ईमान की जारी रहेगी तब तलक
दिल में तेरे मुल्क की खुशबू रहेगी जब तलक
इसके प्यारे से चमन को फूल से गुलज़ार कर
कर फ़ना तू जिंदगानी जान तू क़ुर्बान कर..
दुश्मनाने मुल्क को तू आज ये पैगाम दे
रह गया जो काम बाक़ी उसको तू अंजाम दे
नफरतों के पेड़ को तू आज जड़ से काटकर
कर फ़ना तू जिंदगानी जान तू क़ुर्बान कर..
है हरारत जब तलक सीने में तेरे जान ले
लश्कर-ए-हैवान को झुकना है ये तू मान ले
परचम-ए-हिन्दोस्तां की और ऊंची शान कर
कर फ़ना तू जिंदगानी जान तू क़ुर्बान कर..
मिलके जबतक तू रहेगा फिर भला वो क्या करेगा
देखकर तेरी ये आदत फिर न कोई अब लड़ेगा
सारी ऊँगली को मिला ले एक मुट्ठी बांधकर
कर फ़ना तू जिंदगानी जान तू क़ुर्बान कर..