नई दिल्ली. आम बजट 2018-19 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी कानून ( मनरेगा ) का बजट 55,000 करोड़ रुपये है. इस वर्ष के मनरेगा बजट के बाराबर. (2017-18 में मनरेगा का प्रारम्भिक बजट 48,000 करोड़ रुपये का था और जनवरी 2018 में 7,000 करोड़ रुपये और जोड़ दिए गए.) हर वित्तीय वर्ष के अंत में मनरेगा भुगतान की बकाया राशि कई हज़ार करोड़ की होती है. इसलिए, 2018-19 के बजट का कुछ हिस्सा तो पहले के बकाया भुगतान में ही खर्च हो जाएगा. 2017-18 का बजट भी बहुत अपर्याप्त था. मनरेगा और ग्रामीण विकास के अन्य कार्यक्रमों के अपर्याप्त बजटों के कारण रोज़गार गारंटी कानून कमज़ोर होता जा रहा है. बजट कम होने से गांवों में मरेगाकर्मियों को का मिलने में परेशानी होगी.
मज़दूरी भुगतान में विलम्ब: ग्रामीण विकास मंत्रालय राज्यों को कुछ शर्तों पर ही नरेगा की राशि भेजता है; जैसे कुछ दस्तावेजों का जमा करना, उसके द्वारा दिए गए आदेशों का पालन आदि. अगर राज्य ये शर्ते पूरी नहीं करते, तो उसका नुक्सान मज़दूरों को होता है. इस वर्ष जबतक राज्यों ने ये शर्ते पूरी नहीं कि, मंत्रालय ने तब तक उनके फंड ट्रांसफर ऑर्डर रोक कर रखे. इस कारण से कई राज्यों के नरेगा मज़दूरों को हफ़्तों तक उनकी मज़दूरी नहीं मिली. बिहार और झारखंड के मज़दूरों को तो कई महीनों तक उनकी मज़दूरी नहीं मिली.
मुआवज़े का भुगतान न होना: मज़दूरों को फंड ट्रांसफर ऑर्डर के बाद की प्रक्रियाओं में हुए विलम्ब के लिए मुआवज़ा नहीं मिलता. स्वतन्त्र शोधकर्ताओं द्वारा की गई गणना के अनुसार 2016-17 में नरेगा के MIS ने कुल मुआवज़े के केवल 43 प्रतिशत की गणना की थी और 2017-18 में केवल 14 प्रतिशत की. वित्त मंत्रालय की एक रिपोर्ट इस बात को मानती है कि मज़दूरों को पूरा मुआवजा नहीं मिलता. रिपोर्ट के अनुसार अगर मज़दूरों को पूरा मुआवज़ा मिलेगा तो नरेगा पर खर्च बहुत बढ़ जाएगा.
काम का कम स्तर: मनरेगा के अपर्याप्त बजट से काम चलाने के लिए सरकारी पदाधिकारी अक्सर अपने कनीय अधिकारियों को अनौपचारिक रूप से कम काम देने के आदेश देते हैं. मज़दूरी भुगतान में लम्बे विलम्ब के कारण कई मज़दूरों का भी मनरेगा में रुझान कम हो गया है. 2012-13 से जिन भी परिवारों को कुछ मनरेगा का काम मिल पाया है, उसका सालाना औसतन 49 दिन प्रति परिवार से अधिक नहीं हुआ है. अगर सब ग्रामीण परिवारों को लिया जाए, तो यह औसतन केवल 10-15 प्रतिशत ही था.
मनरेगा दिवस विशेष: धीरे-धीरे दम तोड़ रहा मनरेगा
स्वीकृत लेबर बजट: ग्राम सभाओं को यह अनुमान लगाना होता है कि अगले वित्तीय वर्ष में उनके मनरेगा रोज़गार की कितनी आवश्यता होगी. इसके अनुसार राज्य सरकारें केंद्र सरकार के समक्ष प्रस्तावित लेबर बजट प्रस्तुत करती हैं. 2017-18 के लिए देश का कुल प्रस्तावित लेबर बजट 288 करोड़ मानव दिवस था. केंद्र सरकार ने गैर-कानूनी रूप से इसका केवल 75 प्रतिशत हिस्सा ही स्वीकृत किया. पर राज्यों को जो नरेगा राशि आवंटित की गई, वह तो स्वीकृत लेबर बजट को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त नहीं थी.
न्यूनतम मज़दूरी का भुगतान न होना: मनरेगा मज़दूरी दर के असली मूल्य में कई वर्षों से कोई बढ़ौतरी नहीं हुई है. अभी 17 राज्यों का मनरेगा मज़दूरी दर उसके न्यूनतम मज़दूरी दर से कम है. सरकार ने मनरेगा मज़दूरी को कम से कम न्यूनतम मज़दूरी दर के बराबर करने के परामर्श को बार बार नज़रंदाज़ किया है. उसने मनरेगा मज़दूरी दर को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (ग्रामीण मज़दूर) के अनुसार संशोधित करने की अनुशंसा को भी लागू नहीं किया है.
अन्य योजनाओं की संपत्तियों को प्राथमिकता देना: मनरेगा कानून के अनुसार ग्राम सभाओं को अपने गांव / पंचायत में चलने वाली योजनाओं का चयन करने का अधिकार है. “कन्वर्जेन्स” के नाम पर केंद्र सरकार राज्यों को ऐसी योजनाओं को प्राथमिकता देने के लिए दबाव डाल रहा है जिससे अन्य योजनाओं के लिए संपत्ति का सृजन हो, जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए घर और समेकित बाल विकास परियोजना के लिए आंगनवाड़ी भवन. यह इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इन कार्यक्रमों का बजट भी पर्याप्त नहीं है. और तो और, कुछ राज्यों के मनरेगा कर्मियों पर इन संपत्तियों के पूर्ण निर्माण की ज़िम्मेवारी थोप दी जाती है, जिसके कारण वे मनरेगा के अन्य काम ठीक से नहीं कर पाते.
मनरेगा और भी अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं से ग्रसित है: स्थानीय अधिकारी तकनीक पर कार्यक्रम के बढ़ते निर्भरता को नियंत्रित करने में असमर्थ रहे हैं. मनरेगा के अधिकाधिक केंद्रीय संचालन की वजह से ग्राम सभा की भागीदारी गिरती जा रही है. इस वजह से कार्य के पैमाने और स्थानीय निगरानी पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा है. मनरेगा को आधार के साथ जबरजस्ती लिंक कराने की वजह से कई मजदूर अपनी मजदूरी करने में असमर्थ हैं.
कार्यस्थल सुविधाओं, बेरोज़गारी भत्ता, समय सीमा पर समस्याओं का निराकरण जैसे मजदूरों के अधिकारों का निरंकुश अवहेलना हो रहा है. जवाबदेही और पारदर्शिता जैसे प्रावधानों को केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा लगातार कमज़ोर एवं अनदेखा किया किया जा रहा है. समय के साथ नरेगा कानून को लेकर गैरजिम्मेदाराना माहौल तैयार हो रहा है. कानून की अवहेलना करने पर भी व्यवस्था बच निकलता है. यह मजदूरों के लिए लागू मनरेगा कानून को पूरी तरह से कमज़ोर बना रहा है.