प्रधानमंत्री ने बिलासपुर की जनता को संबोधित करते हुए अपने भाषण की शुरुआत ही बिलासपुर की जनता के ‘त्याग और बलिदान’ के महिमा गायन से की. उन्होने कहाकि “इस गंगासागर को देखकर देश के विकास के लिए बिलासपुर के त्याग और बलिदान की याद आती है. बिलासपुर ने जो किया है वह गोल्डेन पुस्तक में लिखे जाने योग्य है.”
बिलासपुर की महागाथा की शुरुआत
दरअसल ‘गोल्डेन पुस्तक में लिखे जाने योग्य’ इस महागाथा की शुरुआत 1955 में होती है जब पंडित जवाहर लाल नेहरू के हाथों ‘आधुनिक भारत’ के निर्माण के लिए सतलज नदी पर भाखड़ा नांगल बाँध की नींव रखी जाती है और सरदार सरोवर परियोजना नर्मदा घाटी तक जाती है. जिसकी कीमत सबसे पहले पुराने बिलासपुर को जलमग्न होकर वहां रह रहे लोगों, उनके गांवों, उनकी संस्कृतियों और कुल 7206 परिवारों को विस्थापित होकर अता करनी थी. तब नेहरू ने कहा था “हम उन्हें पानी, बिजली, स्कूल, सड़कें सब देंगे. वे अपने गांव भूल जाएंगे.”
पता नहीं वे अपने गांवों को भूल पाए या नहीं, कह नहीं सकता. लेकिन इतना जरुर है कि न उन्हें बिजली मिली, न पानी मिला, न स्कूल और सड़क और न ही वादे के अनुसार जमीनें ही मिली. इसके बावजूद अगर वह अपने गाँवों को भूल पाये हों तो और बात है. हालांकि सरकारें तो उन्हे भूल ही गयीं और हम भी भूल गए कि आखिर क्या हुआ उन लोगों का, कहाँ गए वे लोग? फिलहाल आजकल तो नेहरू की कसमें खायी जाती हैं, लोगों को उनकी बहुत याद आती है और हमारे प्रधानमंत्री तो उनकी ही तरह ‘प्रधानसेवक’ हैं.
…तो नर्मदा घाटी के लोगों को क्या कहेंगे
यह ‘त्याग और बलिदान’ भी एक बसे-बसाये शहर ‘पुराने बिलासपुर’ के उजड़ने और वहां की संस्कृतियों के नष्ट होने की व्यथा-कथा है. आज वह ‘महान त्यागी और बलिदानी’ 7206 परिवार कहाँ हैं, कहाँ चले गए? शायद कोई नहीं जानता. लड़ते-लड़ते मात्र सात सौ परिवार ही बस सके. वह भी किस हालत में हैं ? और त्याग व बलिदान की कौन सी कीमत अता कर रहे हैं ? एक बार प्रधानमंत्री को जाकर जरुर जाकर देख लेना चाहिए.
बिलासपुर के लोगों को प्रधानमंत्री से जरुर पूछना चाहिए कि यदि बिलासपुर के लोग ‘त्यागी और बलिदानी’ हैं तो नर्मदा घाटी के लोग त्यागी और बलिदानी क्यों नहीं है? जिसका उद्घाटन अभी उन्होंने पिछले दिनों किया. उनका त्याग तो बिलासपुर के भाखड़ा विस्थापितों से संख्या में ज्यादा है. 85,000 विस्थापित परिवार, लगभग पांच लाख लोग. न पुनर्वास हुआ, न जमीनें मिलीं, न बिजली मिली, न सड़क. पुनर्वास के लिए अगर कुछ मिला है तो हर परिवार के लिए, शौचालय के आकार का एक-एक ‘यातनागृह’. इनके साथ भी वही हो रहा है जो भाखड़ा के विस्थापितों के साथ हुआ. फिर नर्मदा घाटी के विस्थापितों के साथ यह भेदभाव क्यों?
इसका वास्तविक जवाब तो केवल प्रधानमंत्री ही दे सकते हैं. हम तो केवल प्रश्न पूछ सकते हैं और अनुमान लगा सकते हैं. क्या नर्मदा के लोग त्यागी और बलिदानी इसलिए नहीं हैं कि वह जल सत्याग्रह कर रहे हैं, मुआवजा और बदले में जमीनें मांग रहे हैं जिसका वादा खुद सरकार ने ही किया था? लेकिन ऐसा तो भाखड़ा नांगल के विस्थापितों ने भी नेहरू के सामने किया था! लेकिन वे सभी विकास के गाल में समा गए और भविष्य में ‘त्यागी व बलिदानी’ हो गए. नर्मदा के लोग अभी लोगों के सामने हैं और लड़ रहे हैं. जैसे-जैसे हमारा समाज उन्हें भूलता चला जाएगा और वह लड़ते-लड़ते कहीं खो जायेंगें वैसे-वैसे वह भी ‘त्यागी और बलिदानी’ की ‘महानता’ की ओर बढ़ते चले जायेंगें.
इस देश में अब तक बांध निर्माण से विस्थापित त्यागियों की संख्या, 1 करोड़ 64 लाख और खनन के कारण बलिदानी बने लोगों की संख्या, 25 लाख 50 हजार है. इसी तरह, उद्योगों की स्थापना में 12 लाख 50 हजार त्यागी और बलिदानी हैं। अन्य विकास परियोजनाओं के कारण 11 लाख से अधिक त्यागी और बलिदानी लोग मौजूद हैं.
सच तो यह है कि हर तरफ त्यागी ही त्यागी और बलिदानी ही बलिदानी मौजूद हैं. जिधर देखो उधर त्यागी, जिधर देखो उधर बलिदानी. हर झुग्गी, हर झोपड़ी त्यागियों और बलिदानियों का ही डेरा है. दरअसल यह धरती ‘त्यागियों व बलिदानियों’ का डेरा बनती रही है और सरकारें इसी पर आमादा हैं.