हरियाणा, गोवा और यूपी के बाद एक बार फिर भाजपा ने विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की. कार्यकर्ता ढोल-नगाड़े पीट रहे हैं तो नेतागण अपनी पीठ ठोंक रहे हैं. नेतृत्व की प्रशंसा लाजिमी है और रणनीतिकारों की भी जय-जय हो रही है. हारने वाली कांग्रेस के पास भी तर्क तमाम हैं. ‘टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना’ की तर्ज पर वह विपक्ष को कड़ी टक्कर देने का दावा कर रहे हैं. नए नेतृत्व को बधाइयां दी जा रही हैं, इसे पार्टी नेता बदलाव की लहर के रूप में देखकर आशान्वित हैं.
मगर ठहरिए जरा…जश्न में डूब जाने से पहले और सरकार बनाने की होड़ से पहले इस जनादेश को ध्यान से सुनिए. इसे गुनिए और समझने की कोशिश करिए. इसलिए क्योंकि ‘जन-मन’ आपको ये बताना चाहता है, समझाना चाहता है कि राजनीति के गिरते स्तर पर सोचने की जरूरत है, इसे उठाने की जरूरत है.
हिमाचल और गुजरात चुनावों से पहले, जैसा कि अंदेशा था, बातें भी वैसी ही शुरू हुईं. देवभूमि के नेताओं ने कैंपेनिंग की शुरुआत तो सामान्य ढंग से की मगर चुनावी अभियान में तेजी आते ही व्यक्तिगत आक्षेप और राजनीति का निचला स्तर देखने को मिला. एक भाजपा प्रत्याशी ने विपक्षी को कोर्ट के बाहर देखने की धमकी दे डाली तो दूसरे ने मुख्यमंत्री परिवार को ‘जमानत पर’ बता दिया. मुख्यमंत्री के समर्थकों की तरफ से भी जवाब आया और ‘शैतान’, ‘राक्षस’ और ‘देवभूमि के दानव’ जैसे जुमलों के इस्तेमाल में कोई गुरेज नहीं किया गया.
गुजरात चुनाव की शुरुआत तो मंदिरों के दर्शन कर सात्विक भाव से शुरू हुई मगर बातें आगे बढ़ते-बढ़ते न जाने कहां तक पहुंच गईं. कांग्रेस का ‘विकास पागल हो गया है’ कैंपेन जब प्रचिलित होने लगा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मैं हूं विकास, मैं हूं गुजरात’ का नारा दे दिया. हालांंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (अब अध्यक्ष) और गुजरात कैंपेन के अगुवा राहुल गांधी ने पहल करते हुए कहा कि ‘प्रधानमंत्री ने जब खुद को विकास कह दिया तो हम उनके खिलाफ अपशब्द इस्तेमाल नहीं करेंगे. हम विकास को पागल नहीं कहेंगे.’ इसके बाद ‘विकास पागल हो गया’ वापस ले लिया गया.
भाजपा के लिए राहुल गांधी का यह पैंतरा थोड़ा नया था. मंदिरों के दर्शन कर राहुल ने पहले ही संकेत दे दिए थे कि वह भाजपा को मंदिर-मसजिद के मुद्दों पर बढ़त बनाने देने के मूड में नहीं हैं. हालांकि राजनीति फिर भी गंदे स्तर तक पहुंची. टोपी-जनेऊ की लड़ाई, पुरानी तस्वीरों की खोज, फोटोशॉप से कतर-व्योंत आदि को जनता चुपचाप देख रही थी…बिल्कुल चुपचाप.
मतदान से एक दिन पहले मणिशंकर अय्यर की ‘नीच’ राजनीति ने सारे पर्दे जला दिए, सारी वर्जनाओं की ऐसी की तैसी कर डाली. रणनीतिक जानकार कहते हैं कि भाजपा ने इसका माइलेज लिया. प्रधानमंत्री ने अपनी रैलियों में इसका जिक्र किया और इसी के बहाने से उनपर पहले किए गए सभी हमलों की भी चर्चा कर डाली. कांग्रेस ने भी अय्यर के इस बयान को आड़े हाथों लिया. पहले उन्हें माफी मांगने को कहा, बाद में उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया.
बहरहाल, 18 दिसंबर के नतीजे साफ हैं. भाजपा जीत चुकी है, कांग्रेस के हिस्से हार आई है. जनता ने उन्हें ‘और तैयारी’ करने का संदेश दिया है. मगर ठहरिए…
नतीजों पर फिर से गौर करिए, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात में 150 सीटों का दावा किया था तो हिमाचल में भी पार्टी के बड़े अंतर से जीत का दावा था. पार्टी दोनों जगहों पर जीती मगर अंतर ऐसा नहीं था जिसे किसी ‘लहर’ का नतीजा करार दिया जाए. ट्रेंड्स की मानें तो गुजरात में भाजपा 99 सीटें और कांग्रेस 80 सीटों पर जीत रही है. हिमाचल में भाजपा 44 तो कांग्रेस 20 सीटों पर काबिज हैं.
हिमाचल में पिछले चुनाव के मुकाबले वोटिंग दश्मलव से कुछ अंक ज्यादा रही तो गुजरात में वोटिंग प्रतिशत कम हुआ है. क्या यह न माना जाए कि राजनीति के गिरते स्तर को देखते हुए जनता इससे उदासीन हुई जा रही है…
नतीजों में एक और बात गौर करने की है. दोनों पार्टियों के बड़े नेताओं का हार का सामना करना पड़ा है. हिमाचल फतेह करने वाली भाजपा के सीएम कैंडिडेट प्रो. प्रेम कुमार धूमल को हार का मुंह देखना पड़ा तो कई और बड़े चेहरे भी मुंह के बल गिरे. गुजरात में ओबीसी और दलितों ने अपने नेताओं अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी का साथ तो दिया. मगर पाटीदारों के बड़े समूह के अगुवा बनकर उभरे हार्दिक पटेल के प्रत्याशियों को प्रत्याशित सफलता नहीं मिल पाई. गुजरात में मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जा रहे कांग्रेस के दो प्रत्याशी शक्ति सिंह गोहेल और अर्जुन मोढ़वढ़िया चुनाव हार गए.
कारण क्या है? इन नेताओं पर गौर करें तो पाएंगे कि चुनावी अभियानों में यह ज्यादा मुखर थे. विपक्षियों पर तीखे तंज करने में इन्होंने परहेज नहीं किया बल्कि ईंट का जवाब पत्थर से देने के चक्कर में कई बार सीमाएं भी लांघ दीं. हालांकि यह दोनों तरफ से था मगर अय्यर के विवादास्पद बयान के बाद भाजपा ने सुर बदल लिए थे.
खैर, जीत का श्रेय भाजपा हाईकमान और दिनरात मेहनत करने वाले प्रधानमंत्री को देने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए. मगर इतना जरूर है कि इन्हीं शीर्ष नेताओं को राजनीति में ‘बिलो द बेल्ट’ प्रहारों को रोकने के लिए भी प्रयास करना चाहिए. राजनीति अगर ऐसे साफ-सुथरे स्तर तक लाई जा सकी तो शायद सरकार किसी भी भी बने, ‘अच्छे दिन’ की परिकल्पना जरूर साकार होगी.