बाढ़ में सिर्फ डूब कर ही लोग नहीं मरते हैं. डूबने से हुई मौत से बड़ी संख्या, बाढ़ से पैदा हुए हालात में हुई मौतों की होती है. शायद यही वजह है कि मरने वालों की असल संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा होती है.
बिहार में हर साल बाढ़ आती है. हर साल लोग मरते हैं. सरकार बाढ़ से मरने वालों का आंकड़ा जारी कर अपनी जिम्मेवारी पूरी कर लेती है. आंकड़ों से न ही सरकार को और न ही समाज को कोई फर्क पड़ता है. मरने वालों की संख्या वाकई किसी के लिए मायने नहीं रखती है.
जब बाढ़ आती है तो खेत-खलिहान और खाली जगहों में पानी भर जाता है. क्या इंसान क्या जानवर सभी जान बचाने के लिए एक अदद जमीन की तलाश में रहते हैं. इंसान और जानवर के बीच का आदिम संघर्ष एक फिर शुरू हो जाता है. बाढ़ में सर्पदंश की घटनाएं बढ़ जाती है. सांप काटने से मरने वाले लोगों को शायद ही बाढ़ में मरने वालों में गिना जाता हो.
बिहार के बहुत कम गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर डॉक्टर होते हैं. अब भी लोग बीमार पड़ने पर शहर के अस्पतालों पर निर्भर हैं. बाढ़ में खाना भले ही मिल जाए पानी की दिक्कत हो जाती है. बीमारियां बढ़ जाती है. टूटी सड़क से शहर पहुंचना मुश्किल होता है. पानी जहां कम हो वहां नाव भी नहीं चलाई जा सकती है.
बाढ़ के दरम्यान सबसे अधिक बूढ़े लोग मरते हैं, जिन्हे उम्र का हवाला देकर पहले ही मरा हुआ मान लिया जाता है. बच्चे जनने में औरतें मर जाती हैं. छोटे बच्चे जब बीमार पड़ जाएं तो उन्हे अस्पताल पहुंचाना मुश्किल होता है. कई तो अस्पताल पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं.
सरकार भले ही इंदिरा आवास देने का दावा करती हो लेकिन हकीकत तो यही है कि घर अब भी कच्चे हैं. बाढ़ का प्रभाव सबसे अधिक इन्ही कच्चे घरों पर पड़ती है. बाढ़ से घिरे कच्चे मकानों के ढहने से लोग घायल हो जाते हैं. कई बार मारे भी जाते हैं.
रिपोर्टों में बाढ़ से मरने वालों की संख्या अलग-अलग है. सरकारी आंकड़ा सबसे कम बताता है. लेकिन बिहार में कितने मरे, या बंगाल में कितने मरे, असम में कितने मरे? कितने इंसान मरे और कितनी मवेशी मरे? किसे फर्क पड़ता है. किसी ने कहा असम के काजीरंगा में हर साल बाढ़ आती है. हर साल गैंडे बाढ़ से मरते हैं. बिहार में भी तो हर साल बाढ़ आती है….