कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है. बिलासपुर का वो शहर जो अपनी अनूठी संस्कृति के कारण पहचाना जाता था, 9 अगस्त 1961 को गोबिन्द सागर झील में विलुप्त हो गया. भाखड़ा बांध के निर्माण के लिए ऐतिहासिक बिलासपुर को झील में डूबना पड़ा. नए बिलासपुर शहर में वो पुरानी वाली बात अब नज़र नहीं आती. हमारी खास पेशकश में पढ़िये, झील में डूबा विलासपुर शहर आखिर कैसा था!!
दलीपचंद ने इस शहर को अपनी राजधानी के रूप में बसाया था. उन्होने धौलरा में अपने महल बनावाए थे और नीचे की तरफ शहर बसाया था. 10 दिसंबर, 1961 को भाखड़ा बांध के उद्घाटन अवसर पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भाषण देते हुए इस बांध को भारत का आधुनिक मंदिर कहा था. उन्होंने कहा था कि इससे हमारे देश में खुशहाली आएगी. नेहरू का सपना सच हुआ. भाखड़ा बांध बनने से सचमुच देश में खुशहाली आई. गोबिंदसागर झील में भारी मात्रा में मछली का उत्पादन होना शुरू हो गया. काफी मात्रा में इस बांध से बिजली बनाई जाती है, जिससे हिमाचल प्रदेश निरंतर विकास कर रहा है.
मछुआरों की तकदीर बदल गई लेकिन इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. भाखड़ा बांध के निर्माण के लिए ऐतिहासिक बिलासपुर को झील में डूबना पड़ा. विकास के लिए विनाश को भी झेलना पड़ा. बिलासपुर की गौरवमयी संस्कृति भी गोबिंदसागर झील में डूब गई.
बिलासपुर के पूर्व विधायक व शायर दिवंगत पंडित दीनानाथ ने अपनी एक नज्म में इस दर्द को यूं बयान किया है, ‘बढ़ चला सतलुज का पानी बढ़ चला, जिस जगह पर व्यास ने डंका बजाया ज्ञान का और फिर शुकदेव ने आसन जमाया ध्यान का, ऐ वतन वह सरज़मीं अब तेरे अर्पण हो गई’.
‘बढ़ने लगी बांध की शोखियां, सतलुज मेरा हड़बड़ाने लगा, मचा गुल शहर में तू चल भाग चल, वह आने लगा पानी आने लगा’.
वास्तव में एक शहर का विशाल जलाशय में डूबना मात्र मिट्टी, गारे, ईंट पत्थर के घरों का डूबना नही होता है. उस शहर का डूबना एक संस्कृति का डूबना था. गोबिंदसागर झील में कहलूर रियासत का, रंगमहल व नया महल ही नही डूबे बल्कि उनसे भी पुराने महल, शिखर शैली के 99 मंदिर, स्कूल कालेज, दंडयूरी, बांदलिंया, गोहर बाजार, गोपाल जी का मंदिर और साथ में कचहरी परिसर भी डूबा.
नौ अगस्त 1961 को पहली बार भाखड़ा बांध का जलस्तर बढ़ा तो बिलासपुर शहर डूबता चला गया. दिवंगत विधायक व शायर पंडित दीनानाथ ने उस समय का चित्र अपने शब्दों से खींचते हुए लिखा था-
थी छाई बरसात की स्याह घटा, पपीहा था मलहार गाने लगा, सच उस झील में डूबे शहर की हर बात निराली थी. वीरवार को खाखी शाह की मजार पर हिंदू मुसलमान इकट्ठे होकर वहां मीठा चूरमा चढ़ाते और एक-दूसरे को बांटते थे. वहीं खाखी शाह परिसर में शायरों की महफिलें सजती थीं. गजलों, कव्वालियों और ठुमरियों के दौर चलते। उस शहर की अजब संस्कृति थी. लड़कियां चेहरे पर टिकुली-बिंदी लगाकर गीत गाती हुई आस-पड़ोस में शाम को निकल जाती थीं.
अब नए बिलासपुर शहर में वह बात ही नहीं रही है. अब तो बस यही कहने का मन करता है कि…
अब इस बस्ती के लोगों में पहले जैसी बात नही,
चेहरों पर लजीली सुबह नही, आंखों में नशीली रात नहीं
पीपल में झूला नही रहा, चरखों की चर्र-चर्र डूब गई.
नया बिलासपुर नए रूप में हमारे सामने आया है लेकिन पुराने बिलासपुर की कसक आज भी लोगों के दिलों में है और हमेशा कायम रहेगी.