तब नदी में नहाने की मनाही थी. हम फसलों के पटवन होने का इंतजार किया करते थे. तब पटवन के लिए पम्पिंग सेट को खेतों के आस-पास लगाया जाता था. वह जमीन से पानी खींचकर बड़ी तेज धार के साथ पानी फेंकती थी. पम्पिंग सेट से गिरने वाली धार से पास के जमीन में गड्ढ़ा गहरा होता जाता था. पानी को बाहर जाने से रोकने के लिए गड्ढ़े के चारों ओर मिट्टी के मेड़ बना दिए जाते थे. हम भाई-बहन पम्पिंग सेट से फेंकते पानी की धार में अपना सिर टकराते. कभी उस छोटे से गड्ढ़े में डूबने का अभिनय किया करते थे.
पानी को खेतों तक पहुंचाने के लिए मिट्टी खोदकर ‘पइन’ बनाया जाता था. पइन से बहकर पानी खेतों में पहुंचता था. चूहे पइन के मेड़ों में बिल बना देते थे. पटवन से ठीक पहले उन बिलों को बंद करना होता था. कई बार बिल से होकर पानी अगल-बगल के खेतों में चला जाता. एक ही पइन से आसपास के खेतों की सिंचाई होती थी.
पइन की धारा में हम भाई-बहन अपने-अपने कागज के नाव बहाया करते थे. भाइयों के बीच नावों की बाजी लगती थी. हम नाव के साथ दौड़ लगाते. अक्सर नाव खेत में पहुंचने से पहले ही डूब जाया करते थे.
कुछ सालों के बाद हमें नदी जाने की मनाही नहीं रही. हमने पइन के साथ दौड़ना बंद कर दिया. पम्पिंग सेट से निकलने वाले पानी की धारा से लड़ना भी बंद हो गया. वक्त के साथ पइन और गड्ढ़े, खेतों के साथ मिल गए. पइन की जगह प्लास्टिक के पाइप ने ले लिया.
सरकार ने अनुदान दिया. सबने प्लस्टिक की पाइप खरीद ली. जो नहीं खरीद सके वो भाड़े पर लेकर काम चलाना शुरू किया. कुछ सालों बाद अनुदान घट गया. लेकिन प्लास्टिक के पाइप की जरूरत कम नहीं हुई. उसकी जरूरत बढ़ती ही गई.
प्लास्टिक के पाइप दो-तीन सालों बाद काम के लायक नहीं रह पाते. अब हर साल किसानों को प्लास्टिक के पाइप खरीदने के लिए पैसे खर्च करना मजबूरी हो गया.
एक छोटे किसान को हर साल 20-25 किलो प्लास्टिक के पाइप खरीदने होते हैं. बाजार में दो सौ रूपये किलो प्लास्टिक के पाइप मिलते हैं. इस हिसाब से किसानों को हर साल सिर्फ प्लास्टिक के पाइप खरीदने के लिए पांच हजार रूपया खर्च करना पड़ता है. प्लास्टिक के पाइप की खरीददारी पर बिहार सरकार किसानों को 50 फीसदी का अनुदान देती है. अनुदान की रकम पाइप खरीदने के महीनों बाद बाद मिल पाती है.
पटवन के समय ज्यादातर किसानों के हाथ खाली हो चुके होते हैं. इस समय खेती में लगने वाली लागत को पूरा करना किसानों के लिए आसान नहीं होता. बैंक के कर्ज और महाजनों के उधार का चक्रव्यूह यहीं से शुरू होता है.
पुराने होकर फट जाने वाले पाइप साल-दर-साल जमा होते जाते हैं. पुराने पाइप 7-8 रूपये किलो रद्दी वाले खरीद ले जाते हैं. गांव के बच्चे अब पइन में कागज के नाव के साथ नहीं दौड़ते, वे रद्दी वाले के आने का इंतजार करते हैं. सोनपापड़ी वाला अब भी गांव आता है. पुराने प्लास्टिक के पाइप के बदले रद्दी वाला गांव के बच्चों को सोनपापड़ी दे जाता है. अब बच्चे खेतों से गेहूं नहीं चुनते; वे साल भर प्लास्टिक की रद्दी जमा करते हैं.