सिरमौर(शिलाई). हिमाचल प्रदेश देवभूमि है यहां पर हर महीने त्योहारों की धूम रहती है लेकिन ट्रांसगिरी में माघी त्योहार की बात ही निराली है. लंबे समय से बूढ़ी दिवाली के बाद यह त्यौहार मनाया जा रहा है. इस त्योहार में यहां की संस्कृति से रूबरू होने का सुनहरा मौका मिलता है. यहां के लोग अपनी अलग परंपरा के लिए जाने जाते हैं और इसकी झलक हम आसानी से इस त्योहार में देख सकते हैं. यह बात और है कि बदलते समय के साथ यह त्यौहार अधिक खर्चीला हो चला है. त्यौहार में लोगों का हर्षोल्लास देखते ही बनता है. इस वक्त यहां के लोग त्योहार की तैयाररियों में जुट गए हैं.
त्योहार की तैयारियां जोरों पर
स्थानीय लोगों का कहना है कि 12 महीनों में 12 त्योहार मनाए जाते हैं लेकिन माघी त्योहार हमारी पारंपरिक संस्कृति से जुड़ा हुआ है. इसलिए लोग इसकी विशेष तैयारी करते हैं. क्षेत्र में अधिक ठण्ड होने के कारण सर्दियों का कोटा भी त्यौहार के आने से पहले ही इकट्ठा किया जाता है. लोग आजकल गुड़ सहित राशन इकट्ठा करने में लगे हुए हैं. माघी त्यौहार से पहले सभी तेयारियां पूरी की जा रही हैं.
हर घर में होगी बलि
सिरमौर के उपरी क्षेत्र में माघी त्योहार की खूब धूम रहती है. ट्रांसगिरी में लगभग 127 पंचायत आते हैं. जिसमें लगभग 65 हजार परिवार रहते हैं. हर घर में त्योहार में एक बकरे की बलि देने की परंपरा है. पिछले वर्ष क्षेत्र में 60 करोड़ रुपये के बकरों की कीमत को आका गया था. जबकि इस वर्ष 70 करोड़ रुपये से ज्यादा के बकरे खरीदने का अनुमान लगाया जा रहा है. स्थानीय लोग बढ़चढ़ कर बकरों की बोलियां लगाते हैं. बकरों की वजह से ही यह त्योहार काफी महंगा होता जा रहा है.
इसलिए मनाया जाता है त्योहार
मान्यता है कि आदिकाल में कालीमाता के विचलित होने पर बकरे की बलि दी गई थी. बाद में कालीमाता ने क्षेत्र में राक्षसों का सर्वनाश करके क्षेत्र की रक्षा की थी. तभी से बकरे की बली देना शुभकर्म समझा जाने लगा और यह परंपरा चल पड़ी. देश के केवल उतरी भारत में ही माघी त्यौहार को मनाया जाता है क्योंकि कहा जाता है की उत्तर दिशा में देवताओं का वास होता है. पहले यह बलि मंदिरों में देने की परंपरा थी, बाद में कोर्ट के निर्देश के बाद मंदिर के बजाय घर या खेत में बलि दी जाती है.
हर दिन गांव में लोकगीत व नाटीयों की धूम
सभी तैयारियों को पूर्ण करने के बाद क्षेत्र में 10 जनवरी को ‘बोश्ता’ मनाया जाता है. इस दिन सुबह कालीमाता के नाम का प्रशाद बनाया जाता है माता को प्रशाद चढ़ाने के बाद पूरे परिवार को खिलाया जाता है. उसके बाद 11 जनवरी को ‘भातियोज’ मनाया जाता है. इसी दिन कालीमाता को बकरे की बली दी जाती है. उसके बाद 12 जनवरी को ‘साजा’ मनाया जाता है. इस दिन पूरे गांव के लोग छुट्टी पर रहते हैं और मौजमस्ती करते हैं. इसके बाद लगातार नाचगाने का माहोल शुरू हो जाता है. माघ महीने में हर दिन गांव में लोकगीत व नाटीयों की धूम रहती है.