चंबा. देश में लोहड़ी का त्योहार बड़ी ही श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है. वहीं, मकरसंक्रांति से एक दिन पूर्व चम्बा में मनाई जानें वाली लोहड़ी अपने आप में अनूठी है. दसवीं शाताब्दी में भरमौर से आये राजा साहिल वर्मन ने चम्बा रियासत को बसाया. उस समय लोगों में भूतों के डर को खत्म करने के लिये मढियों में आलैप जलाया जाता था. महीने के अंतिम दिन त्रिशूलनुमा मुशाहरा मशाल निकाला जाता था. माना जाता था कि ऐसा करने से लोगों में भूत-प्रेतों का डर खत्म हो जाता है. स्थानीय भाषा में इसे राज मुशहरा कहतें हैं. सैंकड़ों वर्षों से यह प्रथा चली आ रही है.
आज भी सबसे पहले मुहल्ला सुराड़ा के भगवान शिव के मन्दिर में लकड़ी का एक त्रिशूलनुमा मशाल यानी मुशाहरा बनाया जाता है इसकी विधिवत तरीके से पूजा कर बैंड बाजे के साथ मढ़ियों में डूबने की तैयारी की जाती है. इसे राज मुशाहरा कहते हैं. इसके साथ ही चौन्तड़ा मुहल्ला में भी इसी तरह का एक और मुशाहरा तैयार किया जाता है जो बजीर के नाम से जाना जाता है. रात के समय दोनों मुसाहरा को मिलाया जाता है.
जानकार मानते हैं कि 450 वर्ष से भी पुरानी इस एेतिहासिक लोहड़ी की खास विशेषता यह भी है कि शहर के बीचोबीच 14 मढियों की स्थापना राजाओं ने करवाई थी. यहां पहले पशु बलि का भी प्रचलन था लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यहां नारियल को तोड़ यह पर्व मनाया जाता है.