समाचार पत्रों को खोलते ही छेड़खानी, बलात्कार, हत्या जैसी खबरें मन को खिन्न कर देती हैं. आज के भी समाचार पत्रों में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में छेड़खानी की घटना और गुड़िया प्रकरण में सीबीआई की लाचारी दिख रही थी.
विधानसभा चुनाव में 33% आरक्षण
लेकिन एक खबर समाचार पत्रों को उलटते-पलटते बार-बार अपना ध्यान खींच रही थी. किसी आकर्षक हेडलाइन या सनसनी के कारण नहीं बल्कि इस कारण कि शायद इस बार कुछ बदलाव देखने को मिले. यह खबर थी प्रदेश महिला कांग्रेस की उपाध्यक्ष अरविन्द कौर डोंगरा द्वारा विधानसभा चुनावों में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित करने की मांग. फिर मन में यह ख्याल आता है कि चुनावों से पहले यह मात्र एक खानापूर्ति भी हो सकती है या चुनाव में किसी खास को टिकट मिल जाए इसके लिए दबाव बनाने की रणनीति भी. क्योंकि इसी महीने भाजपा महिला मोर्चे की अध्यक्ष इंदु गोस्वामी ने महिलाओं को टिकट दिए जाने की मांग तो की लेकिन उसमे यह जोड़ दिया कि जिताऊ महिलाओं को टिकट दिया जाय.
‘जिताऊ महिलायें’
सवाल उठता है कि जब 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने की मांग की जा रही है तो यह जिताऊ क्या होता है? लेकिन यह उम्मीद करने में क्या जाता है कि इस बार प्रदेश की महिलायें ज्यादा से ज्यादा नहीं तो कम से कम 33% के नीचे पर नहीं मानेगी. प्रदेश की महिलाओं के दिमाग में यह बात होगी कि जब उनकी संख्या पुरुषों से कम नहीं है तो आखिर क्यों पिछली विधानसभा चुनाव में कुल 31 महिलाओं को टिकट मिला, जिसमे मात्र 4 ही जीतकर विधानसभा पहुँच सकीं?
महिला मुद्दों पर सरकारों की बेरुखी कायम
महिलाओं पर छेड़खानी और रेप की घटनाओं में कोई कमी देखने को नहीं मिली बल्कि इसके विपरीत कई घटनाओं में सरकार की तरफ से गंभीर असंवेदनशीलता देखने को मिली. चाहे वह गुड़िया प्रकरण हो या अभी बनारस विश्वविद्यालय में हुई घटना. सरकारों की तरफ से महिलाओं और उनके मुद्दों के प्रति यह रवैया उनकी नकारात्मकता तो दिखाता ही है लेकिन साथ ही यह इस बात का भी संकेत है कि लोकतंत्र के भीतर महिलाएं बतौर एक समूह या समुदाय, जो सरकारें बना सकती हैं या सरकारें गिरा सकती हैं की पहचान नहीं बना पाई हैं.
राजनीतिक पार्टियों में महिला संगठनों की पदाधिकारी चुनाव से पहले प्रदेश के मुख्य नेताओं से ज्यादा से ज्यादा टिकट की मांग तो करती हैं लेकिन जब उनकी यह मांग अनसुनी कर दी जाती है तो वे क्या करती है इसका पता नहीं चलता. या तो वह खुद टिकट लेकर शांत हो जाती हैं या अगले चुनावों तक के लिए कोई आश्वासन.
नतीजा, महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार, छेड़खानी चलती रहती है और इस तरह महिलाओं के बिना किसी पुरजोर विरोध के विधानसभाएँ भी चलती रहती हैं. लोकसभा में यह बिल पेश होने और पास होने का इंतज़ार करने से बेहतर होगा कि इन पार्टियों की महिलायें सबसे पहले अपनी पार्टी में लागू करके दिखलायें. यह गुड़िया को कानूनी न्याय मिलने से पहले उसको मिलने वाला सामाजिक न्याय होगा.