दो रोज पूर्व मैं माल रोड पर टहल रहा था, तभी मेरे एक मित्र अपनी नन्ही बेटी के साथ सामने से आते दिखे. मुस्कुराहट के साथ अभिवादन किया. लंबे समय के बाद मिल रहे थे तो बेटी से परिचय नहीं था मेरा…
प्यार भरे अंदाज से पुचकारते हुए मैने पूछ लिया ‘हेल्लो गुड़िया कैसे हो..?’
बच्ची का कुछ जवाब आता उससे पहले अनायास ही उनके पिता की आवाज आई
‘भाई साहब, मेरी बेटी को गुड़िया न कहें, इसका नाम प्रिया है…..!’
यह वाक्य सुनकर मैं स्तब्ध रह गया. ऐसे जवाब की कभी अपेक्षा नहीं थी.
रह-रह कर यह वाक्य मेरे जहन में कुलबुलाता रहा. आखिर मैने ऐसा तो कुछ कहा नहीं था जो प्रिया के पिता इतने सकते में आ गए.
फिर कड़ियों से कड़ियां जोड़ता गया… और फिर जो कहानी बनी वह इस प्रकार है…
हिमालय के आंचल में बसा एक वीरान सा इलाका, जहां दूर दूर तक केवल ऊंचे पहाड़, मूकदर्शक से खड़े लंबे पेड़ और जंगल में नाना प्रकार के जानवरों का बसेरा था. यहां प्रकृति अपने प्रकृतिस्थ रूप में है, अनछुई, अलबेली मदमस्त सी. यहीं पर एक किशोरी, जो हर किशोर की तरह सुंदर सपनों का ताना-बाना बुनती होगी, सुनहरे कल के सपने देखती होगी. अभी वक्त था उसके सपनों में रंग भरने और अरमानों के परवाज भरने में… घर से दूर अपने करीबियों के पास रहकर स्कूल की पढ़ाई. सहपाठियों के साथ किताब और जिंदगी के सबक सीखना, भविष्य की नींव को मजबूत करना, सहेलियों के साथ अठखेलियां करना… बस अभी तो यही दिनचर्या थी उसकी.
लेकिन… लेकिन किसे मालूम था कि हवस के भूखे भेड़िये उसपर घात लगाए अपने मौके का इंतजार कर रहे हैं. और… और एक दिन अचानक जंगल उस अबला की चीख-पुकार से गूंज उठा, उस मासूम को हवसी भेड़ियों ने घेर लिया था. उसके साथ दरिंदगी की, उसके फूल जैसे जिस्म को नोंच खाया. उसकी आबरू तार-तार कर दी.
किसी ने चीख-पुकार सुनी या नहीं, यह तो मालूम नहीं लेकिन यह सब देख सुन वहां पड़े पत्थरों, चुपचाप सांस ले रहे पेड़-पौधों और पर्वतराज जरूर खून के आंसू रोए होंगे. सिसकती, तड़पती मासूम ने किस विकृत दशा में अंतिम सांस ली, देख सुन कर किसी की भी रूह कांप जाए लेकिन शैतान का रूप धरे देवभूमि में ये दंरिदे हैवानियत का नंगा नाच खेलते जा रहे थे
दिल दहलाने वाली इस विभत्स और विकृत मानसिकता से भरी घटना के दो दिन बाद पता चला कि यह मासूम ‘गुड़िया’ ही थी.
घटना मन को झकझोरने वाली थी. सरकार ने जांच बिठाई, टीम मौके पर पहुंची. कुछ लोगों से पूछताछ हुई तो कुछ सलाखों के पीछे धकेले गए.
लेकिन…लेकिन तभी शुरू हुआ राजनीति का नंगा नाच… क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं. तो नारे, आगजनी, आंदोलन, धरना-प्रदर्शन, गाड़ियां फूंकी, थाना फूंका और चिंगारी पूरे प्रदेश में आग के रूप में धधक उठी.
हर ओर एक ही शोर, ‘…गुड़िया हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं…’
सड़कों से राजधानी होते हुए विधानसभा. अखबारों की सुर्खियां और फिर नेशनल मीडिया में ट्रायल. सोशल मीडिया एक मंच बन गया. हर तरफ …गुड़िया…गुड़िया…गुड़िया…
जांच सीबीआई को सौंपी गई.
तभी अचानक एक आरोपी को जेल की सलाखों के पीछे ही मौत के घाट उतार दिया गया.
फिर क्या पूरी जांच टीम ही सलाखों के पीछे चली गई. क्योंकि किसी को बचाने के लिए किसी की बलि ले ली गई थी.
अब फिर राजनीतिक ड्रामा चरम पर पहुंच गया. सब राजनीतिक नफा-नुकसान जोड़ने में लग गए और मानवता तार-तार होकर कहीं घुप अंधेरे के एक कोने से अपने अतीत को झांक रही थी.
राजनीति के लोभी गुड़िया…गुड़िया चिल्ला रहे थे. बयानों की बौछार थी. बस यह मुद्दा गर्म रहे तो जीत पक्की है. चुनावी चाशनी में राजनीति का अमानवीय तड़का लगता रहा… इस आग की तपिश में सियासी रोटियां पकती रही.
दूसरी ओर दूर अनंत आसमान की गहराइयों में धर्मराज की नगरी से शून्य में ताकती विस्मृत सी दो निगाहें इस सारे खेल को देख रही होंगी…सोचती होंगी… काश मैं ‘गुड़िया’ न होती…!!!
गुड़िया तो एक मासूम सी नाजुक सी वो कली थी जो बहार आते ही फूल बनकर किसी के घर-आंगन को महकाने वाली थी. उसके आज को संवारने वाली थी, उसके आने वाले कल का खैरमकदम करने वाली थी.
चुनावी बयार में उस गुड़िया को इस कदर उछाला जाएगा, सियासी खिलौना बना दिया जाएगा, इसकी कल्पना मात्र से भी आत्मा सिहर उठती है. इसी ऊहापोह में दो दिन बाद आज समझ आया कि मेरे मित्र ने मुझे क्यों कहा था कि ‘जेएम’…मेरी बेटी को गुड़िया न कहें!!!
आज इस शांत पहाड़ी राज्य की देवभूमि में शायद ही कोई अपनी बेटी को गुड़िया कहना पसन्द करता हो….क्योंकि अभिभावकों के ममत्व को दर्शाने वाले इस प्यारे से नाम ‘गुड़िया’ पर पड़े गंदी राजनीति के छींटों ने इसे लगभग त्याज्य बना दिया है…