भरूच(दहेज). दहेज में सभी छोटे-बड़े कंपनी के ‘लेबर-कॉलोनी’ बस गये हैं. इनमें एक लेबर-कॉलोनी बिड़ला कॉपर में काम करने वाले मजदूरों का भी है. पंचायत की गैरमजरूआ जमीन पर टीन और प्लास्टिक से घेरकर रहने लायक जगह बना दी गई है. इन्ही घरों में 1,500 से ज्यादा मजदूर रहते हैं.
बिजली-पानी समस्या
कालोनी में बिजली नहीं है. पानी का टैंकर ठेकेदार भेजता है. हैसियत(पानी स्टोर करने का बर्तन) के मुताबिक पानी मिल जाता है. मर्द सड़कों पर नहाते दिखते हैं. औरतें तड़के उठती हैं और नहाने का काम निपटाती हैं. शौचालय और स्वच्छता अभियान इन कॉलोनी तक आते-आते दम तोड़ देते हैं.
महीनेभर की मजदूरी ठेकेदार अपना कमीशन लेने के बाद मजदूरों के एकाउंट में ट्रांसफर करता है. छत्तीसगढ़ के साधराम 22 साल से यहां काम कर रहे हैं. उनकी एक दिन की मजदूरी 250 रूपये है. साधराम की पत्नी 10 रूपया कम मजदूरी पाती हैं. उनके चार बच्चे हैं. 17 साल का बड़ा बेटा फैक्ट्री जाने लगा है. गांव से लौटने के बाद बाकी तीन बेटों का स्कूल छूट गया है. अब वे स्कूल नहीं जाते हैं.
उदन गांव के ललित भाई ने कहा कि पांच सालों में गांव में कुछ काम नहीं हुआ।#JanManGujarat pic.twitter.com/WdJGOZCsou
— Panchayat Times (@PanchayatTimes) November 29, 2017
खुली छत में चलता है स्कूल
पूरे कॉलोनी में 200 के करीब स्कूल जाने लायक बच्चे हैं. उनके लिये खुली छत के नीचे स्कूल चलता है. नटवर भाई बगल के लखी गांव के हैं. कॉलोनी की जरूरत पूरी करने के लिये एकमात्र उनकी दुकान है. वे बताते हैं, “स्कूल बस नाम का है, पढ़ाने के नाम पर बस खानापूर्ती होती है और डाक्टरी जांच के नाम पर बस पैसा बनाने का काम होता है.”
कॉलोनी के चारो ओर झाड़ियां हैं. शाम के बाद मच्छर का प्रकोप बढ़ जाता है. ज्यादातर मजदूर लकड़ी पर खाना पकाते हैं. साधराम बताते हैं कि आसपास से लकड़ियां काटने पर रोक लगने के बाद तीन किलोमीटर दूर से जलावन लानी पड़ती है.
छत्तीसगढ़ के अलावा यहां झारखंड, बिहार और उत्तरप्रदेश के मजदूर भी हैं. झारखंड के 17 साल का ‘किशोर’ दोबारा अपने गांव से लौट आया है. उसे दो महीने से कोई काम नहीं मिल पाया है. साधराम का छोटा भाई भी दो महीने से बेकार बैठा है.
बिरला कॉपर के एक कर्मचारी के मुताबिक यहां मजदूरी आसानी से नहीं मिलती. कई महीने इंतजार और अफसरों के पास पैरवी लगानी पड़ती है.
गर्मियों में होती है दिक्कत
साधराम बताते हैं कि गांव में उनकी छोटी-सी जमीन पर इतनी उपज नहीं है कि उनके परिवार का पेट चल सके. पेट चलाने के लिये इन प्लास्टिक और टीन के घरों में रहते हैं. भरूच में अब भी धूप तेज है. रात की ड्यूटी पूरी करके लौटने वाले अभी इन्हीं घरों में सो रहे हैं. “गर्मियों में ये घर रहने लायक नहीं रहते और गर्मी एकबार फिर लौटेगी.”