शेर-ओ-शायरी की दुनिया की अज़ीम हस्ती गुलज़ार साहब का आज जन्मदिन है. अपने लेखन से दिलों को छू लेने वाले गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त 1934 को हुआ था. गुलज़ार के नाम से पहचाने जाने वाले इस शायर का असली नाम संपूर्ण सिंह है, जो कि बहुत कम लोगों को ही पता होगा. गुलज़ार शायर, फिल्म निर्माता, गीतकार और कहानीकार जैसे कई हुनर को अपने अंदर सहेजे हुए हैं. इन्हें उर्दू ज़बान से बेहद लगाव है. उर्दू के लिए ये लिखते हैं-
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बाँ का, मज़ा घुलता है लफ़्ज़ों का ज़बाँ पर
कि जैसे पान में महँगा क़िमाम घुलता है
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बाँ का….
नशा आता है उर्दू बोलने में, गिलौरी की तरह हैं मुँह लगी सब इस्तेलाहें
लुत्फ़ देती है, हलक़ छूती है उर्दू तो, हलक़ से जैसे मय का घोंट उतरता है
बड़ी अरिस्टोकरेसी है ज़बाँ में
फ़क़ीरी में नवाबी का मज़ा देती है उर्दू..
गुलज़ार की टेलीविज़न फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ को काफ़ी सराहा गया. इन्होंने ‘मासूम’ और ‘रुदाली’ के लिए स्क्रीनप्ले लिखा. इनके द्वारा डॉक्युमेंट्री को भी डायरेक्ट किया गया. गुलज़ार साहब ने ‘रात पशमीने की’, ‘पुखराज’, ‘त्रिवेणी’, ‘रात’, ‘चाँद और मैं’, ‘मेरा कुछ सामान’, ‘ख़राशें’, ‘कुछ और नज़्में’, ‘छईयां छईयां’ और ‘खौफ़’ जैसी कविता की किताबें लिखीं. बच्चों के लिए भी इन्होंने किताब लिखी जिसका नाम है ‘एकता.
गुलज़ार ने बंटवारे के दर्द को भी अच्छे से महसूस किए हैं. वो लिखते हैं-
क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मेले कतबे
दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं
शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है
जगह जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं
जगह जगह ढेर हो गई हैं अज़ीम सदियाँ
मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं मुक़द्दस हथेलियों से गिरी हैं मेहंदी
शम्ओं की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गई हैं
यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गई हैं
सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं
हर्फ़ आँखों के मिट चुके हैं
मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं कहीं ज़िंदगी के मअ’नी गिरे हैं और गिर के खो गए हैं!
बात चल रही हो गुलज़ार साहब की और उनकी लिखी नज़्म, ग़ज़ल और शेर को न लिखा जाए तो ये कतई वाजिब नही. गुलज़ार भले ही उम्र में जवानी को पार कर गएं हो लेकिन उनकी कलम हर मौसम, हर सदी, हर पल जवान ही रहती है. उनके लिखे हुए एक-एक अल्फाज़ लोगों के दिलों में उतर जाते हैं. वो कुछ यूं शेर लिखते है-
*आदतन तुम ने किए वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया
*अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा
*कभी तो चौक के देखो हमारी तरफ़
किसी की आँख में मेरा भी इंतज़ार दिखे
*ख़ामोशी का हासिल भी एक लंबी ख़ामोशी थी
उनकी बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी
इसके अलावा उन्होंने बहुत सी ग़ज़लें भी लिखी. जिसमे आँखों में जल रहा है पर बुझता नहीं धुआँ, उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ.. ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता, मेरी तस्वीर भी गिरती तो छनाका होता.. बेसबब मुस्कुरा रहा है चाँद, कोई साज़िश छुपा रहा है चाँद.. शामिल हैं.
गुलज़ार साहब को 20 फिल्म फेयर अवार्ड और 5 राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है. उन्हें ‘जय हो’ के लिए ग्रेमी अवार्ड से भी नवाज़ा जा चुका है. इसके अलावा 2013 में इन्हे दादा साहब फाल्के अवार्ड भी दिया गया.
गुलज़ार के साथ जब ए आर रहमान की जोड़ी आती है तो उनके चाहने वालों को फिर और क्या चाहिए. गुलज़ार इतनी बड़ी हस्ती होने के बावजूद मीन-मेख निकालने की जगह गीत को और सहज बना देते हैं. दिल से रे…, चल छैंया-छैंया…, जिया जले जां जले…और ‘जय हो…’ जैसे गीत इन दोनों की कमेस्ट्री बतानेके लिए काफ़ी है.
गुलज़ार ने समाज को अच्छे से समझा. सामाजिक-राजनीतिक हालातों को देख-समझकर उसे कलम के ज़रिए बताया. वो लिखते हैं-
सारा दिन मैं ख़ून में लत-पत रहता हूँ
सारे दिन में सूख-सूख के काला पड़ जाता है ख़ून
पपड़ी सी जम जाती है, खुरच खुरच के नाख़ूनों से
चमड़ी छिलने लगती है, नाक में ख़ून की कच्ची बू
और कपड़ों पर कुछ काले काले चकते से रह जाते हैं
रोज़ सुबह अख़बार मिरे घर
ख़ून में लत-पत आता है..
गुलज़ार की एक कविता इसके अंत में वो लिखते हैं कि चाँद से गिर के मर गया है वो, लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है.. ये लाइन दर्शाती है कि उन्होंने संवेदना के स्तर को कितना ऊपर उठाए रखा. गुलज़ार एक कार्यक्रम में ग़ालिब पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि ग़ालिब के अपने शेर में अगर ज़रा भी कमी लगती तो वह उसे फाड़कर फेंक देते थे. अगर उनकी ज़रा ज़रा सी कमियों वाली शायरियों को इकठ्ठा किया जाए तो अच्छा खासा संकलन बन जाए.
गुलज़ार के इस शायराना अंदाज़ पर जितनी भी चर्चा करेंगे उतनी ही परते खुलती जाएंगी. गुलज़ार दिलों को छू जाने वाला एक जादूगर है. जो दिलों पर राज करता है..